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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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प्रातःकाल यह शोक-समाचार अमोला में फैल गया। इने-गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर संवेदना प्रकट करने न आया। स्वाभाविक मृत्यु हुई होती, तो संभवतः उनके शत्रु भी आकर चार आंसू बहा जाते, पर आत्मघात एक भंयकर समस्या है, यहां पुलिस का अधिकार है। इस अवसर पर मित्रदल ने भी शत्रुवत व्यवहार किया।

उमानाथ से गजाधर ने जिस समय यह समाचार कहा, उस समय वह कुएं पर नहा रहे थे। उन्हें लेश-मात्र भी दुःख व कौतूहल नहीं हुआ। इसके प्रतिकुल उन्हें कृष्णचन्द्र पर क्रोध आया, पुलिस के हथकंड़ों की शंका ने शोक को भी दबा दिया। उन्हें स्नान-ध्यान में उस दिन बड़ा विलंब हुआ। संदिग्ध चित्त को अपनी परिस्थिति के विचार से अवकाश नहीं मिलता। वह समय ज्ञात-रहति हो जाता है।

जाह्नवी ने बड़ा हाहाकार मचाया। उसे रोते देखकर उसकी दोनों बेटियां भी रोने लगीं। पास-पड़ोस की महिलाएं समझाने के लिए आ गईं। उन्हें पुलिस का भय नहीं था, पर आर्तनाद शीघ्र ही समाप्त हो गया। कृष्णचन्द्र के गुण-दोष की विवेचना होने लगी। सर्वसम्मति ने स्थिर किया कि उनमें गुण की मात्रा दोष से बहुत अधिक थी। दोपहर को जब उमानाथ घर में शर्बत पीने आए और कृष्णचन्द्र के संबंध में कुछ अनुदारता का परिचय दिया, तो जाह्नवी ने उनकी ओर वक्र नेत्रों से देखकर कहा– कैसी तुच्छ बातें करते हो।

उमानाथ लज्जित हो गए। जाह्नवी अपने हार्दिक आनंद का सुख अकेले उठा रही थी। इस भाव को वह इतना तुच्छ और नीच समझती थी कि उमानाथ से भी उसे गुप्त रखना चाहती थी। सच्चा शोक शान्ता के सिवा और किसी को न हुआ। यद्यपि अपने पिता को वह सामर्थ्यहीन समझती थी, तथापि संसार में उसके जीवन का एक आधार मौजूद था। अपने पिता की हीनावस्था ही उसकी पितृ-भक्ति का कारण थी, अब वह सर्वथा निराधार हो गई। लेकिन नैराश्य ने उसके जीवन को उद्देश्यहीन नहीं होने दिया। उसका हृदय और भी कोमल हो गया। कृष्णचन्द्र ने चलते-चलते उसे जो शिक्षा दी थी, उसमें अब उससे विलक्षण प्रेरणा-शक्ति का प्रादुर्भाव हो गया था। आज से शान्ता सहिष्णुता की मूर्ति बन गई। पावस की अंतिम बूंदों के सदृश मनुष्य की वाणी के अंतिम शब्द कभी निष्फल नहीं जाते। शान्ता अब मुंह से ऐसा कोई शब्द न निकालती, जिससे उसके पिता को दुःख हो। उनके जीवनकाल में वह कभी-कभी उनकी अवहेलना किया करती थी, पर अब वह अनुदार विचारों को हृदय में भी न आने देती थी। उसे निश्चय था कि भौतिक शरीर से मुक्त आत्मा के लिए अंतर और बाह्य में कोई भेद नहीं। यद्यपि अब वह जाह्नवी को संतुष्ट रखने के निमित्त कोई बात उठा न रखती थी, तथापि जाह्नवी उसे दिन में दो-चार बार अवश्य ही उल्टी-सीधी सुना देती। शान्ता को क्रोध आता, पर वह विष का घूंट पीकर रह जाती, एकांत में भी न रोती। उसे भय था कि पिताजी की आत्मा मेरे रोने से दुःखी होगी।

होली के दिन उमानाथ अपनी दोनों लड़कियों के लिए उत्तम साड़ियां लाए। जाह्नवी ने भी रेशमी साड़ी निकाली, पर शान्ता को अपनी पुरानी धोती ही पहननी पड़ी। उसका हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया, पर उसका मुख जरा भी मलिन न हुआ। दोनों बहनें मुंह फुलाए बैठी थीं कि साड़ियों में गोट नहीं लगवाई गई और शान्ता प्रसन्न बदन घर का काम-काज कर रही थी, यहां तक कि जाह्नवी को भी उस पर दया आ गई। उसने अपनी एक पुरानी, लेकिन रेशमी साड़ी निकालकर शान्ता को दे दी। शान्ता ने जरा भी मान न किया। उसे पहनकर पकवान बनाने में मग्न हो गई।

एक दिन शान्ता उमानाथ की धोती छांटना भूल गई। दूसरे दिन प्रातःकाल उमानाथ नहाने चले, तो धोती गीली पड़ी थी। वह तो कुछ न बोले, पर जाह्नवी ने इतना कोसा कि वह रो पड़ी। रोती थी और धोती छांटती थी। उमानाथ को यह देखकर दुख हुआ। उन्होंने मन में सोचा, हम केवल पेट की रोटियों के लिए इस अनाथ को इतना कष्ट दे रहे हैं। ईश्वर के यहां क्या जवाब देंगे? जाह्नवी को तो उन्होंने कुछ न कहा, पर निश्चय किया कि शीघ्र ही इस अत्याचार का अंत करना चाहिए। मृतक संस्कारों से निवृत्त होकर उमानाथ आजकल मदनसिंह पर मुकदमा दायर करने की कार्यवाही में मग्न थे। वकीलों ने उन्हें विश्वास दिला दिया था कि तुम्हारी अवश्य विजय होगी। पांच हजार रुपए मिल जाने से मेरा कितना कल्याण होगा, यह कामना उमानाथ को आनंदोन्मत्त कर देती थी। इस कल्पना ने उनकी शुभाकांक्षाओं को जागृत कर दिया था। नया घर बनाने के मंसूबे होने लगे थे। उस घर का चित्र हृदयपट पर खिंच गया था। उसके लिए उपयुक्त स्थान की बातचीत शुरू हो गई थी। इस आनंद-कल्पनाओं में शान्ता की सुधि न रही थी। जाह्नवी के इस अत्याचार ने उनको शान्ता की ओर आकर्षित किया। गजाधर के दिए हुए सहस्र रुपए, जो उन्होंने मुकदमें के खर्च के लिए अलग रख दिए थे, घर में मौजूद थे। एक दिन जाह्नवी से उन्होंने इस विषय में कुछ बातचीत की। कहीं एक सुयोग्य वर मिलने की आशा थी। शान्ता ने ये बातें सुनीं। मुकदमें की बातचीत सुनकर भी उसे दुख होता था, पर वह उसमें दखल देना अनुचित समझती थी, लेकिन विवाह की बातचीत सुनकर वह चुप न रह सकी। एक प्रबल प्रेरक शक्ति ने उसकी लज्जा और संकोच को हटा दिया। ज्योंही उमानाथ चले गए, वह जाह्नवी के पास आकर बोली– मामा अभी तुमसे क्या कह रहे थे? जाह्नवी ने असंतोष के भाव से उत्तर दिया– कह क्या रहे थे, अपना दुःख रो रहे थे। अभागिन सुमन ने यह सब कुछ किया, नहीं तो यह दोहरकम्मा क्यों करना पड़ता? अब न उतना उत्तम कुल ही मिलता है, न वैसा सुंदर वर। थोड़ी दूर पर एक गांव है। वहीं एक वर देखने गए थे। शान्ता ने भूमि की ओर ताकते हुए उत्तर दिया– क्या मैं तुम्हें इतना कष्ट देती हूं कि मुझे फेंकने की पड़ी हुई है? तुम मामा से कह दो कि मेरे लिए कष्ट न उठाएं।

जाह्नवी– तुम उनकी प्यारी भांजी हो, उनसे तुम्हारा दुख नहीं देखा जाता। मैंने भी तो यही कहा था कि अभी रहने दो। जब मुकदमे का रुपया हाथ आ जाए, तो निश्चिंत होकर करना, पर वह मेरी बात मानें तब तो?

शान्ता– मुझे वहीं क्यों नहीं पहुंचा देते?

जाह्नवी– विस्मित होकर पूछा– कहां?

शान्ता ने सरल भाव से उत्तर दिया– चाहे चुनार, चाहे काशी।

जाह्नवी– कैसी बच्चों की-सी बातें करती हो। अगर ऐसा ही होता, तो रोना काहे का था? उन्हें तुम्हें घर में रखना होता, तो यह उपद्रव क्यों मचाते?

शान्ता– बहू बनाकर न रखें, लौड़ी बनाकर तो रखेंगे।

जाह्नवी ने निर्दयता से कहा– तो चली जाओ। तुम्हारे मामा से कभी न होगा कि तुम्हें सिर चढ़ाकर ले जाएं और वहां अपना अपमान कराके फिर तुम्हें ले आएं। वह तो लोगों का मुंह कुचलकर उनसे रुपए भराएंगे।

शान्ता– मामी, वे लोग चाहे कैसे ही अभिमानी हों, लेकिन मैं उनके द्वार पर जाकर खड़ी हो जाऊंगी, तो उन्हें मुझ पर दया आ ही जाएगी। मुझे विश्वास है कि वह मुझे अपने द्वार पर से हटा न देंगे। अपना बैरी भी द्वार पर आ जाए, तो उसे भगाते संकोच होता है। मैं तो फिर भी...

जाह्नवी अधीर हो गई। यह निर्लज्जता उससे सही न गई। बात काटकर बोली– चुप भी रहो। लाज-हया तो जैसे तुम्हें छू नहीं गई। मान न मान, मैं तेरा मेहमान। जो अपनी बात न पूछे, वह चाहे धन्नासेठ ही क्यों न हो, उसकी ओर आंख उठाकर न देखूं। अपनी तो यह टेक है। अब तो वे लोग यहां आकर नकघिसनी भी करें, तो तुम्हारे मामा दूर से ही भगा देंगे।

शान्ता चुप हो गई। संसार चाहे जो कुछ समझता हो, वह अपने को विवाहिता ही समझती थी। विवाहिता कन्या का दूसरे घर में विवाह हो, यह उसे अत्यंत लज्जाजनक, असहृय प्रतीत होता था। बारात आने के एक मास पहले से वह सदन के रूप-गुण की प्रशंसा सुन-सुनकर उसके हाथों बिक चुकी थी। उसने अपने द्वार पर, द्वाराचार के समय, सदन को अपने पुरुष की भांति देखा है, इस प्रकार नहीं, मानों वह कोई अपरिचित मनुष्य है। अब किसी दूसरे पुरुष की कल्पना उसके सतीत्व पर कुठार के समान लगती थी। वह इतने दिनों तक सदन को अपना पति समझने के बाद उसे हृदय से निकाल न सकती थी, चाहे वह उसकी बात पूछे या न पूछे, चाहे उसे अंगीकार करे या न करे। अगर द्वाराचार के बाद ही सदन उसके सामने आता, तो वह उसी भांति मिलती, मानों वह उसका पति है। विवाह, भांवर या सेंदूर-बंधन नहीं, केवल मन का भाव है।

शान्ता को अभी तक यह आशा थी कि कभी-न-कभी मैं पति के घर अवश्य जाऊंगी, कभी-न-कभी स्वामी के चरणों में अवश्य ही आश्रय पाऊंगी, पर आज अपने विवाह की-या पुनर्विवाह की– बात सुनकर उसका अनुरक्त हृदय कांप उठा। उसने निःसंकोच होकर जाह्नवी से विनय की कि मुझे पति के घर भेज दो। यहीं तक उसका सामर्थ्य था। इसके सिवा वह और क्या करती? पर जाह्नवी की निर्दयतापूर्ण उपेक्षा देखकर उसका धैर्य हाथ से जाता रहा। मन की चंचलता बढ़ने लगी। रात को जब सब सो गए, तो उसने पद्मसिंह को एक विनय-पत्र लिखना शुरू किया। यह उसका अंतिम साधन था। इसके निष्फल होने पर उसने कर्तव्य का निश्चय कर लिया था।

पत्र शीघ्र समाप्त हो गया। उसने पहले ही से कल्पना में उसकी रचना कर ली थी। केवल लिखना बाकी था।

‘पूज्य धर्मपिता के चरण-कमलों में सेविका शान्ता का प्रणाम स्वीकार हो। मैं बहुत दुख में हूं। मुझ पर दया करके अपने चरणों में आश्रय दीजिए। पिताजी गंगा में डूब गए। यहां आप लोगों पर मुकदमा चलाने का प्रस्ताव हो रहा है। मेरे पुनर्विवाह की बातचीत हो रही है। शीघ्र सुधि लीजिए। एक सप्ताह तक आपकी राह देखूंगी। उसके बाद फिर आप इस अबला की पुकार न सुनेगें।’

इतने में जाह्नवी की आंखें खुली। मच्छरों ने सारे शरीर में कांटे चुभो दिये थे। खुजलाते हुए बोली– शान्ता! यह क्या कर रही है?

शान्ता ने निर्भय होकर कहा– पत्र लिख रही हूं।

‘किसको?’

>‘अपने श्वसुर को।’

‘चुल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरती?’

‘सातवें दिन मरूंगी।’

जाह्नवी ने कुछ उत्तर न दिया, फिर सो गई। शान्ता ने लिफाफे पर पता लिखा और उसे अपने कपड़ों की गठरी में रखकर लेट रही।

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